चुनाव का मतलब सत्ता है और सत्ता का अर्थ मौजूदा हालात में चेहरा होते जा रहा है. पश्चिम बंगाल में मां, माटी मानुष नारे से दीदी यानी ममता बैनर्जी ने पांच साल सरकार चलाई. लेकिन घुसपैठ, दंगे और हिंसा जैसे कुछ मुद्दे हैं, जिनसे जनता त्रस्त है. फिर भी इन सबको नजरअंदाज कर बंगाल की जनता ने ममता के हाथ में राज्य का कमान देनें में कोई भूल नहीं की.
दीदी ने पिछले पांच साल में मां माटी मानुष का नारा इतना बुलंद कर दिया की नारदा,शारदा के नारों का शोर इन नारों में कहीं दब गया.
तृणमूल के खिलाफ भ्रष्टाचार के जिन आरोपों का जाल लेफ्ट और कांग्रेस ने मिल कर बुना था, उसे दीदी ने आसानी से अपने चुनावी तंत्रमंत्र से हटा दिया.
कोलकाता में जन्म लेने वाली ममता का बचपन बहुत गरीबी में बीता. पिता का साया सिर से उठने के बाद भाई-बहनों की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर थी. संघर्ष और राजनीति, दोनों साथ-साथ चले. कहते हैं उन्होंने घर चलाने के लिए दूध तक बेचा था.
पढ़ाई के दिनों से ही राजनीति में सक्रिय रह रही थीं. 1970 से कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता के तौर पर उनका राजनीतिक सफर शुरू हुआ. 1976 से 1980 तक वह महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं.
देश की सबसे युवा सांसद बनीं ममता ने 1984 में सीपीएम के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से हराया था. 1991 में कोलकाता से लोकसभा के लिए चुनी गईं ममता को केंद्रीय मंत्रीमंडल में भी मौका मिला.
वह नरसिम्हा राव सरकार में मानव संसाधन विकास, युवा मामलों और महिला एवं बाल विकास विभाग में राज्य मंत्री बनीं. वह नरसिम्हा राव सरकार में खेल मंत्री के तौर पर भी बनाई गईं. लेकिन बाद में कुछ मतभेदों के चलते इस मंत्रालय से उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
1999 में उनकी टीएमसी पार्टी बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार का हिस्सा बनी और ममता को देश की पहली महिला रेल मंत्री बनाया गया.
2002 में उन्होंने अपना पहला रेल बजट पेश किया और इसमें उन्होंने बंगाल को सबसे ज्यादा सुविधाएं देकर सिद्ध कर दिया कि उनकी नजर बंगाल से आगे का नहीं देख पाती है.
2009 के संसदीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में 19 सीटें जीत लीं. दूसरी बार रेलमंत्री बनने पर भी ममता का फोकस बंगाल और बंगाल के चुनाव ही रहा.
और परिणाम यह देखने को मिला की साल 2011 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों से सत्ता पर काबिज लेफ्ट फ्रंट को उखाड़ फेंका. ममता के यह एक ऐतिहासिक जीत थी.
गरीबों को सीधे फायदा पहुंचा कर दिल जीतने के मामले में ममता ने सिर्फ लेफ्ट की ही नीति ही नहीं अपनाई, बल्कि उनसे भी चार कदम आगे निकल गई.
ममता बनर्जी इस राज को समझ गईं कि कि मुफ्त की चीज हर किसी को पसंद आती है. इसलिए स्कूलों में बच्चों को मुफ्त जूते दिए गए. सोबूझ साथी स्कीम के तहत स्कूली बच्चों को मुफ्त साइकिल दी गई. कन्याश्री स्कीम के तहत लड़कियों को स्कॉलरशिप बांटी गईं.
नौजवानों का दिल जीतने के लिए मोहल्ले के क्लबों को खूब पैसे बांटे गए. इन सब पर भारी दो रुपए किलो चावल की स्कीम रही. लेफ्ट ने कई नारों को ममता जमीन पर उतारने में कामयाब रही.
यही नहीं, गांव-गांव में अपने काडर को आक्रामक बनाने में, पुलिस और ठेकेदारी से लेकर पूरे सिस्टम को अपने फायदे के लिए मोड़ने में, वोट की खातिर मालदा जैसे कई मामलों में आखें मूंदने में ममता लेफ्ट से भी ज्यादा लेफ्ट चली गईं.
दीदी को पसंद करने के पीछे एक अहम कारण रहा है उनकी सादगी. भारतीय राजनीति में अपना खास मुकाम बनाने वाली ममता बनर्जी को एक स्ट्रीट फाइटर के नाम से भी जाना जाता हैं. दीदी बत्ती लगी बुलेट प्रूफ कार से नहीं चलती हैं.
यही नहीं ममता जब घर से दफ्तर या फिर दूसरी जगहों पर जाती हैं तो उनके साथ गाड़ियों का लंबा-चौड़े काफिला भी दिखाई नहीं देता है. वह अभी भी सूती साड़ी, पैरों में हवाई चप्पल पहनती हैं और खपड़ैल के अपने पुश्तैनी मकान में ही रहती हैं.
ममता एक ऐसी महिला है जिन्होंने बंगाल से 34 साल के मजबूत साम्यवादी सरकार को उखाड़ फेंका. अपने उत्साहपूर्ण भाषणों से वे लोगों को हमेशा प्रोत्साहित करती हैं , 2016 के चुनावी परिणाम यह बता दिया की जनता में ममता काफी लोकप्रिय हैं.
दीदी ने पिछले पांच साल में मां माटी मानुष का नारा इतना बुलंद कर दिया की नारदा,शारदा के नारों का शोर इन नारों में कहीं दब गया.
तृणमूल के खिलाफ भ्रष्टाचार के जिन आरोपों का जाल लेफ्ट और कांग्रेस ने मिल कर बुना था, उसे दीदी ने आसानी से अपने चुनावी तंत्रमंत्र से हटा दिया.
कोलकाता में जन्म लेने वाली ममता का बचपन बहुत गरीबी में बीता. पिता का साया सिर से उठने के बाद भाई-बहनों की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर थी. संघर्ष और राजनीति, दोनों साथ-साथ चले. कहते हैं उन्होंने घर चलाने के लिए दूध तक बेचा था.
पढ़ाई के दिनों से ही राजनीति में सक्रिय रह रही थीं. 1970 से कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता के तौर पर उनका राजनीतिक सफर शुरू हुआ. 1976 से 1980 तक वह महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं.
देश की सबसे युवा सांसद बनीं ममता ने 1984 में सीपीएम के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से हराया था. 1991 में कोलकाता से लोकसभा के लिए चुनी गईं ममता को केंद्रीय मंत्रीमंडल में भी मौका मिला.
वह नरसिम्हा राव सरकार में मानव संसाधन विकास, युवा मामलों और महिला एवं बाल विकास विभाग में राज्य मंत्री बनीं. वह नरसिम्हा राव सरकार में खेल मंत्री के तौर पर भी बनाई गईं. लेकिन बाद में कुछ मतभेदों के चलते इस मंत्रालय से उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
1999 में उनकी टीएमसी पार्टी बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार का हिस्सा बनी और ममता को देश की पहली महिला रेल मंत्री बनाया गया.
2002 में उन्होंने अपना पहला रेल बजट पेश किया और इसमें उन्होंने बंगाल को सबसे ज्यादा सुविधाएं देकर सिद्ध कर दिया कि उनकी नजर बंगाल से आगे का नहीं देख पाती है.
2009 के संसदीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में 19 सीटें जीत लीं. दूसरी बार रेलमंत्री बनने पर भी ममता का फोकस बंगाल और बंगाल के चुनाव ही रहा.
और परिणाम यह देखने को मिला की साल 2011 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों से सत्ता पर काबिज लेफ्ट फ्रंट को उखाड़ फेंका. ममता के यह एक ऐतिहासिक जीत थी.
गरीबों को सीधे फायदा पहुंचा कर दिल जीतने के मामले में ममता ने सिर्फ लेफ्ट की ही नीति ही नहीं अपनाई, बल्कि उनसे भी चार कदम आगे निकल गई.
ममता बनर्जी इस राज को समझ गईं कि कि मुफ्त की चीज हर किसी को पसंद आती है. इसलिए स्कूलों में बच्चों को मुफ्त जूते दिए गए. सोबूझ साथी स्कीम के तहत स्कूली बच्चों को मुफ्त साइकिल दी गई. कन्याश्री स्कीम के तहत लड़कियों को स्कॉलरशिप बांटी गईं.
नौजवानों का दिल जीतने के लिए मोहल्ले के क्लबों को खूब पैसे बांटे गए. इन सब पर भारी दो रुपए किलो चावल की स्कीम रही. लेफ्ट ने कई नारों को ममता जमीन पर उतारने में कामयाब रही.
यही नहीं, गांव-गांव में अपने काडर को आक्रामक बनाने में, पुलिस और ठेकेदारी से लेकर पूरे सिस्टम को अपने फायदे के लिए मोड़ने में, वोट की खातिर मालदा जैसे कई मामलों में आखें मूंदने में ममता लेफ्ट से भी ज्यादा लेफ्ट चली गईं.
दीदी को पसंद करने के पीछे एक अहम कारण रहा है उनकी सादगी. भारतीय राजनीति में अपना खास मुकाम बनाने वाली ममता बनर्जी को एक स्ट्रीट फाइटर के नाम से भी जाना जाता हैं. दीदी बत्ती लगी बुलेट प्रूफ कार से नहीं चलती हैं.
यही नहीं ममता जब घर से दफ्तर या फिर दूसरी जगहों पर जाती हैं तो उनके साथ गाड़ियों का लंबा-चौड़े काफिला भी दिखाई नहीं देता है. वह अभी भी सूती साड़ी, पैरों में हवाई चप्पल पहनती हैं और खपड़ैल के अपने पुश्तैनी मकान में ही रहती हैं.
ममता एक ऐसी महिला है जिन्होंने बंगाल से 34 साल के मजबूत साम्यवादी सरकार को उखाड़ फेंका. अपने उत्साहपूर्ण भाषणों से वे लोगों को हमेशा प्रोत्साहित करती हैं , 2016 के चुनावी परिणाम यह बता दिया की जनता में ममता काफी लोकप्रिय हैं.