Wednesday, September 7, 2011

एक डर सा .......



सुबह की पहली किरण जब मुझमे पड़ती है,
एक खौफ सा लग जाता है,
मन में एक अनहोनी की आशंका लगती है,
सुबह की पहली किरण जब मुझ पे पड़ती है..

जब मै दफ्तर के लिए निकलता हूँ,
एक डर सा लगता है,
हर दिन जिसके साथ सफर करता हूँ,
क्यूँ वो चेहरा बदला सा लगता है..
इस भीड़ में मुझे हर कोई अपना सा लगता है,
तो कोई क्यूँ  मुझे इनसे अलग करता है..
हर सुबह एक डर सा लगता है..

नीला आकाश पहनकर वह,
सौदे की ज़मीं पे चलता है
और हमे एक खौफ जगा देता है,
सुबह की पहली किरण जब मुझ पे पड़ती है,
एक खौफ सा लग जाता है..




क्या तुम ही हो मेरे सपनो की अफसरा...

तुमसे मिलके मुझे न जाने क्यूँ ऐसा लगा,
क्या तुम ही हो मेरो सपनो की अफसरा.
मन ने कुछ महसूस किया,
दिल में कुछ आहट सी हुई,
कानो ने तुम्हारी गुन गुनाहट सुनी....
तुम्हे अपने करीब पाके,
न जाने मुझे कुछ ऐसा लगा ....
क्या तुम ही हो मेरे सपनो की अफसरा ?

तुम्हारी वो पहली नज़र,
तुम्हारी वो शर्माहट,
न जाने क्यूँ छु गई मेरे दिल को |
क्या तुम्हारे दिल ने भी तुमसे कहा ..?
क्या तुम ही हो मेरे सपनो की अफसरा..

सपनो से अलग हो के,
मैं हकीकत में आता हूँ,
फिर भी क्यों ये मुझे एक सपना सा लगता है..
क्यूँ मेरा दिल ये पूछता है...
क्या तुम ही हो मेरे सपनो की अफसरा....