Wednesday, March 30, 2016

डिग्री की रेलमपेल, 'शिक्षा' फेल

उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय के बाहर एक दुबले-पतले व्याकुल से दिखने वाले लड़के प्रताप सिंह ने बीबीसी से बातचीत के दौरान नकल के बारे में एक बात कही थी कि, "यह हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है! नकल करना हमारा पैदाइशी हक़ है।" भारत के इस हिस्से में विश्वविद्यालय के परीक्षा तंत्र में भ्रष्टाचार आम बात है। पैसे वाले परीक्षा में पास होने के लिए घूस दे सकते हैं। युवाओं का एक पूरा वर्ग है जो बेचैन छात्रों और लालची प्रशासन के बीच दलाल का काम करते हैं। प्रताप कहते है छात्रों का एक और वर्ग है जिसे उनके राजनीतिक संपर्कों की वजह से स्थानीय स्तर पर बहुत अच्छी तरह से लोग जानते हैं और परीक्षक उन्हें हाथ लगाने की हिम्मत नहीं करते। मैंने सुना है कि स्थानीय गुंडे कई बार परीक्षा केंद्र में अपनी डेस्क पर छुरा निकालकर रख देते हैं। परीक्षक के लिए यह साफ़ संकेत है, 'यहां से दूर ही सहो.... वरना'.. तो, जब राजनीतिक प्रभाव और पैसे वाले नकल कर सकते हैं तो गरीब छात्र क्यों नहीं?

देश में पढ़ाई और परीक्षा की मौजूदा व्यवस्था को देखें तो पाएंगे की बच्चे ज्ञान और शिक्षा के लिए कम, परीक्षा में अच्छे नंबर के लिए ज्यादा पढ़ते है। दरअसल, इसमें गलती उन बच्चों की भी नहीं है। हमारे आसपास के लोग या कहे समाज बच्चों के मन में यह बात शुरुआत में ही डाल देते है कि परीक्षा में अच्छे नंबर लाना है ताकी वो उच्च शिक्षा और नौकरी में आगे बढ़ सकेगा। इस तरह शिक्षा व्यवस्था का कुल मकसद परीक्षा में अच्छे अंकों से पास कराने तक सीमित रह जाता है, और इस मकसद को पाने के चक्कर में बच्चें के जीवन में पढ़ाई का उद्देश्य दुनिया-जहान के बारे में एक ठोस समझ पैदा करना न बन कर इस बात पर टिक जाता है कि बचपन से किशोरावस्था तक बच्चे हर परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होते रहें, ताकि बड़े होने पर वे एक ठीक-ठाक नौकरी पा सकें, आईआईटी-आईआईएम जैसे नामी औऱ बड़े संस्थानों में पढ़ाई कर सकें, या विदेशों आदि विकसित देशों का रुख कर सकें । अच्छे नंबरों की नींव पर मिलने वाली कामयाबी और जीवन में तरक्की का एक ऐसा मिथक देश में तैयार हो गया है कि हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था उसके पीछे कदम से कदम मिला रही है। 

देखा जाए तो इस शिक्षा व्यवस्था के पीछे उन संस्थानों का योगदान है, जो सिर्फ कागज के टूकड़ों में ही दर्ज हैं। साथ ही उन शिक्षकों का भी जो शिक्षा के क्षेत्र को एक पेशा या कहें बनाते जा रहें है। शिक्षक अयोग्य हों और पाठ्यक्रम ठीक से पूरा न हो, तो फिर परीक्षा में सख्ती कितनी न्यायोचित होगी, यह विचारणीय प्रश्न है। दूसरा पहलू लड़कियों की सामाजिक स्थिति से जुड़ा है। अब गांवों में भी शादी के लिए आजकल कम-से-कम मैट्रिक पास दुल्हनों की मांग है पर लड़कियों को स्कूल की रसोई और घर के कामों में उलझा रखा है। तो लड़कियां किसी तरह पास हो जाएं, इसके लिए अभिभावक जान जोखिम में डाल कर उन तक पर्चियां पहुंचाते हैं, और जब ऐसा करने को सामाजिक मान्यता मिली हुई हो तो फिर सरकार कितनी लाचार रहती है, यह पिछले साल बिहार में हुए परिक्षा के नकल के दौरान, बिहार के शिक्षा मंत्री पीके शाही के बयान से भी जाहिर हुआ कि, “14 लाख छात्र परीक्षा दे रहे हैं। बच्चों के अभिभावक, परिवार या रिश्तेदार ही नकल करवा रहे हैं। इसे रोकना सरकार के बूते में नहीं है।” तो उपाय क्या है? परीक्षा को विषयनिष्ठ बना कर किताबों को साथ रखने की इजाजत देने का सुझाव दिया गया है। बहरहाल, यह समस्या को सिर्फ ऊपरी तौर पर देखना है। 

शिक्षा तंत्र की जो तमाम बीमारियां हैं, डिग्रियों-प्रमाणपत्रों का फर्जीवाड़ा उसकी एक छोटी-सी मिसाल है। पिछले साल दिल्ली के पूर्व कानूनमंत्री जितेंद्र तोमर की फर्जी डिग्री मामले में गिरफ्तारी हुई थी। उस समय भी यह सवाल जोर-शोर से उठा था कि फर्जी डिग्री लेने या नकल से परीक्षा पास करने में आखिर फर्क क्या है, क्योंकि दोनों ही तरीकों से एक अयोग्य व्यक्ति शिक्षा तंत्र को ठेंगा दिखाते हुए उसका मखौल उड़ाता है। हालात सिर्फ अपने ही देश का नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क का भी है पाकिस्तान के कराची में स्थित कंपनी एग्जेक्ट सॉफ्टवेटर को करोड़ों डॉलर के फर्जी डिग्री घोटाले में लिप्त पाया गया था। दावा किया गया था कि यह कंपनी कई प्रतिष्ठित देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों की डिग्रियां ऑनलाइन बेचती थी।

देश में सैकड़ों कॉलेज-विश्वविद्यालय बिना मान्यता के चल रहे हैं और उनकी सत्यता की जांच का जिम्मा उन्हीं लोगों पर छोड़ा गया है जो उनमें पढ़ना चाहते हैं या उनकी डिग्रियां लेना चाहते हैं। 2015 में इसी कारण यूजीसी की तरफ से देश में मान्यताप्राप्त कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की सूची उसकी वेबसाइट पर प्रकाशित की गई है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि देश में कई नामी तकनीकी संस्थान किसी विश्वविद्यालय की संबद्धता के बगैर चलते रहे हैं। एमटेक, एमफार्म, बीटेक, एमसीए जैसे कोर्सों में दाखिला लेने वाले छात्रों को कई बार यह जानकारी काफी देर से मिल पाती है कि जिस कोर्स में और कॉलेज में उन्होंने दाखिला लिया है, वह किसी विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ नहीं है। ऐसा एक बड़ा मामला साल 2014 में उत्तर प्रदेश में सामने आ चुका है। 

यूपीटीयू यानी उत्तर प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी ने यह पाया था कि प्रदेश के एक सौ दस इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट संस्थान बिना किसी संबद्धता के चल रहे थे, हालांकि उन्होंने सत्र 2013-14 में करीब पच्चीस हजार छात्रों को विभिन्न कोर्सों में दाखिला दिया था और इसके बदले भारी फीस ली थी। यह भी देखा गया है कि प्रशासन और परीक्षा कराने वाली व्यवस्था फर्जी डिग्री, नकल के दोषियों और परचा लीक कराने वालों को कड़ी सजाएं देने में नाकाम रही है। नाम की सजाओं से ऐसे लोगों का हौसला बढ़ता है। कहीं न कहीं, इसके लिए खुद हमारा समाज भी दोषी है जो जीवन में आर्थिक सफलता को ही सबसे ज्यादा तवज्जो देता है, उसके लिए व्यक्ति के गुणों का कोई मोल नहीं है।

आरएसएस ड्रेस नहीं,सोच बदलें

आरएसएस ने ऐतिहासिक मेकओवर करते हुए 13 मार्च को अपने 90 साल पुराने ड्रेस कोड को बदल दिया। अब स्वयंसेवक खाकी हाफ पैंट की जगह भूरे रंग की फुल पैंट में नजर आएंगे। यह मेकओवर ऐसे समय में किया गया जब नेकर  फैशन में है । स्वयंसेवक तब से नेकर पहन रहें जब सिर्फ बच्चें ही नेकर पहनते थे पर अब तो आलाम यह है कि बच्चों के साथ-साथ अब हर कोई नेकर पहनता है। स्वयंसेवको को लगता है कि लोग उनके ड्रेस कोड का मज़ाक़ उड़ाने लगे थे? मज़ाक़ तो पहले भी उड़ता होगा और आज भी उड़ ही रहा है । आरएसएस के इस मेकओवर से उनपर फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल नेटवरकिंग साइट्स पर #NikarNahiSochBadlo का हैशटैग काफी ट्रेंड किया । यह कहना गलत नहीं की आज के समय में आरएसएस को नेकर की नहीं बल्कि सोच बदलने की ज्यादा जरूरत है । देश को उनके नेकर से नहीं बल्कि उनकी सोच से दिक्कतें है या कहें खतरा है !
1925 में आरएसएस की स्थापना उपनिवेशवाद के विरोधी संगठन के तौर पर हुई थी। इसने मूलतः हिंदू ख्याति और भारतीय इतिहास को ध्यान में रखकर एक अलग विचार को आगे बढ़ाया। ऐसा कहा गया है कि भारत के यश भरे दिन तब खत्म हो गए जब 8वीं सदी में मुस्लिमों और ईसाइयो द्वारा उसपर आक्रमण किया गया। आरएसएस मानता है कि अगर सभी भारतीयों को यह बताया जाए और उन्हें इसपर यकीन हो जाए कि इतिहास में कभी वह हिंदू ही थे, यह देश को एक कर सकता है। आरएसएस के महासचिव सुरेश भैयाजीजोशी ने रॉयटर्स को बताया था कि हिंदुस्तान का मतलब हिंदुओं की भूमि, इसलिए यहां रहने वाले लोग स्वतः पहले हिंदू हैं। आप संघ से जुड़े किसी व्यक्ति से अगर संघ को लेकर सवाल करते हैं वो आपसे ये प्रश्न ज़रूर पूछेंगे  कि हिंदू शब्द को लेकर आपका आडिया कितना क्लियर ।
अपने जन्म से लेकर आज तक आरएसएस पर 4 बार बैन लग चुका है। इसमें से एक बार तब जब संगठन के एक पूर्व सदस्य ने 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर दी। उपलब्ध स्त्रोतों से मिली जानकारी के मुताबिक गांधीजी, आरएसएस के प्रशंसक नहीं थे। काफी लंबे समय तक आरएसएस चुपचापकाम करता रहा इसलिए स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आरएसएस की भूमिका की विशेष चर्चा तत्कालीन साहित्य में नहीं है. चूंकि संघ, राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल नहीं था इसलिए इस आंदोलन में उसकी भूमिका के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता ।
हरिजनके 9 अगस्त 1942- के अंक में गांधी लिखते हैं, ‘‘मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है. मैं यह भी जानता हूं कि यह एक सांप्रदायिक संगठन है.’’ उन्होंने यह टिप्पणी दूसरेसमुदाय के खिलाफ नारेबाजी और भाषणबाजी के संबंध में एक शिकायत के प्रति उत्तर में कही.
इसमें गांधी, आरएसएस कार्यकर्ताओं के शारीरिक प्रशिक्षण की चर्चा कर रहे हैं जिसके दौरान कार्यकर्ता ये नारे लगाते थे कि यह राष्ट्र केवल हिंदुओं का है और अंग्रेजों के देश से जाने के बाद हम गैर-हिंदुओं को अपने अधीन कर लेंगे. सांप्रदायिक संगठनों द्वारा की जा रही गुंडागर्दी के संबंध में वे लिखते हैं, ‘‘मैंने आरएसएस के बारे में बहुत सी बातें सुनी हैं. मैंने यह भी सुना है कि जो शैतानी हो रही है, उसकी जड़ में संघ है’’, (कलेक्टिव वर्क्स ऑफ गांधी, खंड 98, पृष्ठ 320-322).
आरएसएस के संबंध में गांधीजी के विचारों का सबसे विश्वसनीय स्त्रोत उनके सचिव प्यारेलाल द्वारा वर्णित एक घटना है. सन् 1946 के दंगों के दौरान, प्यारेलाल लिखते हैं, ‘‘गांधीजी के साथ चल रहे लोगों में से किसी ने पंजाब के शरणार्थियों के एक महत्वपूर्ण शिविर वाघा में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और कड़ी मेहनत करने की क्षमता की तारीफ की. गांधीजी ने तुरंत पलटकर कहा, ‘पर यह न भूलो कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासीवादियों में भी ये गुण थे’. गांधी आरएसएस को तानाशाहीपूर्ण सोच वाला एक सांप्रदायिक संगठन मानते थे.’’ (प्यारेलाल, महात्मा गांधी: द लास्ट फेज, अहमदाबाद, पृष्ठ 440).
आजादी के बाद, दिल्ली में हुई हिंसा के संदर्भ में (राजमोहन गांधी, मोहनदास, पृष्ठ 642), ‘‘गांधी जी ने आरएसएस के मुखिया गोलवलकर से हिंसा में आरएसएस का हाथ होने संबंधी रपटों के बारे में पूछा. आरोपों को नकारते हुए गोलवलकर ने कहा कि आरएसएस, मुसलमानों को मारने के पक्ष में नहीं है. गांधी ने कहा कि वे इस बात को सार्वजनिक रूप से कहें. इस पर गोलवलकर का उत्तर था कि गांधी उन्हें उद्धत कर सकते हैं और गांधीजी ने उसी शाम की अपनी प्रार्थना सभा में गोलवलकर द्वारा कही गई बात का हवाला दिया. परंतु उन्होंने गोलवलकर से कहा कि उन्हें इस आशय का वक्तव्य स्वयं जारी करना चाहिए. बाद में गांधी ने नेहरू से कहा कि उन्हें गोलवलकर की बातें बहुत विश्वसनीय नहीं लगीं.’’
इन बातों को बताने का मुल कारण यह है कि जिस गांधी को आरएसएस शुरू से अपना विरोधी या कहें आलोचक मानते आया हैं, आज वही आरएसएस गांधी से प्रमाणपत्र चाहता है. इसलिए उनके कहे वाक्य को अधूरा प्रस्तुत किया जा रहा है. मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद से ही, गांधीजी को इस रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास हो रहे हैं, जिससे आरएसएस को लाभ हो. पहले, गांधी जयंती (2 अक्टूबर) से ‘‘स्वच्छता अभियान’’ की शुरूआत की गई. फिर, यह दावा किया गया कि गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का आरएसएस से कोई लेनादेना नहीं था. अब गांधी से इस आशय का प्रमाणपत्र हासिल करने के प्रयास हो रहे हैं कि ‘‘आरएसएस बहुत अच्छा संगठन है’’. इस आरएसएस की रणनीति कहना गलत नहीं होगा ।
आरएसएस के छिपा हुए एजेंडा को दुनिया ने तब जाना जब राम माधव के 'अखंड भारत' वाले बयान से आरएसएस और बीजेपी ने उन्हें किनारा कर दिया। माधव ने कहा, आरएसएस को अभी भी लगता है कि करीब 60 साल पहले यह हिस्से जो कुछ ऐतिहासिक वजहों से अलग हो गए थे, वह फिर से सद्भावना के साथ एक साथ हो जाएंगे और अखंड भारत का निर्माण करेंगे। इसके साथ ही माधव ने यह भी कहा कि वह यह विचार बतौर आरएसएस सदस्य ही दे रहे हैं। उन्होंने साफ किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि इसे हासिल करने के लिए हम किसी देश के साथ युद्ध करेंगे या उस पर कब्ज़ा कर लेंगे, बिना किसी जंग के आपसी सहमति से यह मुमकिन हो सकता है। वहीं राम माधव के बयान पर आरएसएस का कहना था कि, अखंड भारत बनाने का विचार राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक है। उन्हें अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है, लेकिन बीजेपी और सरकार यह अच्छे से जानती है कि भारत और पाकिस्तान दो स्वायत्त देश हैं, हालांकि आरएसएस के पूर्व प्रवक्ता और बीजेपी के महासचिव राम माधव अब भी अपने बयान पर कायम हैं।
राम माधव ने बाद में लिखा कि भारत, पाक और बांग्‍लादेश बल पूर्वक नहीं बल्‍कि लोकतांत्रिक ढंग से एक होंगे। माधव ने जिस बात का खुलासा नहीं किया वो यह है कि आरएसएस आज भी खुद को विभाजन को भुला नहीं पाई है। विभाजन जिसके लिए उसने मुसलमानों को माफनहीं किया। आरएसएस पाकिस्‍तान के खिलाफ नफरत पाले बैठा है, जो गाहे बगाहे उसके बयानों से पता भी चलता है। अगर उन्‍होंने मौका मिल जाए तो वे इस देश को दुनिया के नक्‍शे से मिला देंगे। वे ऐसा इसलिए करेंगे क्‍योंकि पाकिस्‍तान का अस्‍त‍ित्‍व आरएसएस और हिंदुत्‍व के उस तर्क के खिलाफ है, जिसके मुताबिक हिमालय से लेकर सिंधु नदी और समुद्र तक रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं।

यह क्षेत्र एक देश है और सभी एक ही वंश के हैं। आरएसएस की मानें तो यहां हम सभी सदियों से एक सभ्‍यता के तौर पर रह रहे हैं और हम सबकी जीवनशैली एक ही है। जो लोग इस्‍लाम या ईसाई बन गए, वे बाहर से नहीं आए, वे तो यहां वैदिक काल से रह रहे थे। वे भी हिंदू हैं। आरएसएस के मुताबिक, धार्मिक तौर पर अलग होने के बावजूद हम सभी की नसों में एक ही खून बहता है, इसलिए हम एक हैं और हमें एक साथ रहना चाहिए। इसी वजह से विभाजन भी हमारी सभ्‍यता के ढांचे पर एक चोट है। इसलिए, आरएसएस को पहले सोच अपनी सोच,अपने विचार बदलने की जरूरत है न की नेकर की ।

Sunday, March 13, 2016

रेल बजट 2016-17 : बजट नहीं, फाइव ईयर प्लान !

 गांधी जी के संघर्षो का आगाज रेलगाड़ी से हुआ था। ऊंचे दर्जे वाले डिब्बे से निकाल फेंकने की घटना ने गांधी जी के अंत:मन में आजादी का बिगुल बजाया। उनकी त्वरित लड़ाई इस बात पर थी कि जायज़ टिकट होने के बाद भी उन्हें उस डिब्बे से क्यों उतार दिया गया, क्यों उनका सामान फेंक दिया गयादेखा जाए तो हालात आज भी कुछ ऐसे ही है, कन्फर्म टिकट होने के बावजूद यात्री आरामदायक सफर नहीं कर पाते है ट्रेनों की कमी और बुनियादी सुविधाएं न होना इसका एक मुख्य कारण है!

बजट यानी के आय-व्यय का वो लेखा जोखा जो हर साल संसद में पेश होता है। संसद से लेकर सड़क तक, पान की गुमटी से लेकर घर के आंगन तक चर्चा में रहता है। हाल ही में सुरेश प्रभु ने रेल बजट पेश किया। रेल बजट से सभी को बेहतर रेल सेवाओं की उम्मीद रहती है, पर लोग आमतौर पर उन दिक्कतों से परिचित नहीं होते जिनसे भारतीय रेल को जूझना पड़ता है। सरकार एक तरफ तो बुलेट ट्रेन दौड़ा लेने का सपना देखती हैं और दूसरी तरफ रेलगाड़ियों के अगले-पिछले हिस्से में लगे इक्के-दुक्के जनरल डिब्बों की तस्वीर देखते हैं तो यह बात समझ नहीं आती कि महात्मा गांधी देश में जिस अंतिम व्यक्ति के उदय की बात करते थे, वह तो अब भी उसी डिब्बे में कुचा हुआ है।

अपने बजट के शुरुआत में प्रभु कहते हैं मेरे मन में सवाल उठता है- हे प्रभु, ये कैसे होगा? प्रभु ने तो जवाब नहीं दिया, तब ये प्रभु ने सोचा कि गांधी जी जिस साल भारत आए थे, उनकी शताब्दी वर्ष में भारतीय रेलवे को एक भेंट मिलनी चाहिए कि परिस्थित बदल सकती है, रास्ते खोजे जा सकते हैं, इतना बड़ा देश, इतना बड़ा नेटवर्क, इतने सारे रिसोर्सेस, इतना विशाल मेनपॉवर, इतनी स्ट्रॉंग पॉलिटिकल विल, तो फिर क्यों नहीं हो सकता पुनर्जन्म

प्रभु के इन शब्दों से ये तो समझ आ गया था कि ये बजट नहीं बल्कि भारतीय रेल का फाइव ईयर प्लान होगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि रेलवे मानचित्र धमनियों का एक ऐसा नेटवर्क है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के दिल में जीवनदायी रक्त को संचरित करता है। सामाजिक-आर्थिक विकास में भूमिका निभाने के कारण रेलवे देश को जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण अंग है। यह एक ऐसी संस्था है, जो हमें आम भारत से मुखातिब कराती है। शायद यही वजह थी कि बापू ने रेलगाड़ी के माध्यम से भारत को खोजने और देखने का निर्णय लिया। मोदी सरकार की मानें तो पिछले कुछ दशकों में रेलवे में ज्यादा कुछ नहीं बदला है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि रेलवे में लंबे समय से लगातार कम निवेश हुआ, जिसके कारण भीड़ बढ़ी और क्षमता का अति दोहन हुआ। इसका असर रेलवे के कामकाज और सेवाओं पर दिखता है। आज रेलवे की पूरी व्यवस्था ही चरमरा गई है।

अगले पांच सालों पे नजर डालें तो भारतीय रेल की प्राथमिकता इस बात पर होगी कि मौजूदा नेटवर्क क्षमता में सुधार करने के साथ उसे और कैसे बढाया जाये। इसमें दोहरीकरण, तिहरीकरण और विद्युतीकरण पर जोर दिया जाएगा साथ ही औसत गति बढ़ेगी और गाड़िया समय से चलेंगी। मालगाड़ियों को भी समय से चलाने पर जोर दिया जाएगा।
सरकार का कहना है कि आगामी पांच वर्ष में रेल को कायापलट होगा। जिसके लिए भारतीय रेल ने कुछ लक्ष्य निर्धारित किए है
  •     ग्राहक के अनुभव में स्थायी और अमूलचूल सुधार लाना ।
  •   रेलवे को यात्रा का सुरक्षित साधन बनाना ।
  •   भारतीय रेलों की क्षमता में पर्याप्त विस्तार करना और इसको आधुनिक बनाना।
  •   रेल प्रशासन में पारदर्शिता स्थापित करना ।

यात्री रेल यात्रा को आरामदायक बनाना चाहते हैं। प्रभु ने डिब्बों का नवीनीकरण करके यात्रियों को कुछ राहत देने की कोशिश किया सरकार ने रेल डिब्बों के ऊपरी बर्थ पर चढ़ने के लिए सुविधाजनक सीढियां की व्यवस्था करने का फैसला लिया। वहीं पिछले रेल बजट में जोर-शोर के साथ चर्चा में रही 90 मिनट में दिल्ली से आगरा तक की दूरी तय करने वाली सेमी बुलेट ट्रेन पर इस बार कुछ खास चर्चा नहीं हुई। विशेष परियोजनाओं जैसे कि मुंबई-अहमदाबाद के बीच हाई स्पीड की रेल गाड़ियां चलाने पर भी सरकार ने जोर देने की बात कही है। प्रभु ने कहा कि यह परियोजना अंतिम चरण में है और इसकी रिपोर्ट इस साल के बीच में आने की उम्मीद है।

रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने अगले पांच वर्ष में 8.5 लाख करोड़ रुपए का निवेश करने का विचार किया है। लेकिन इन सब के बीच प्रभु उन हकीकतों से दो-चार नहीं हुए, जिनसे हमारा-आपका रोजाना पाला पड़ता है। इस सरकार ने पिछले साल जब पूरी दुनिया में तेल के दाम बेतरह गिर रहे थे, तब भी रेल यात्री भाड़ा बढ़ाया था। आलम यह था कि प्लेट्फार्म टिकट जहां पांच रुपए प्रति व्यक्ति था अब वो दस रुपए हो गए है। कुछ महीने पहले ही सरकार ने रिजर्वेशन कराने की सुविधा नब्बे दिन से बढ़ा कर 120 दिन कर दी थी, पर टिकट आपको वेटिंग के ही मिलने थे। आलम यह है कि जहां आपको एचओ यानी के हेड ऑफिस कोटे तक की गारंटी नहीं वहां अगर आप एजेंट से टिकट खरीदते हैं, तो आप दूसरे दिन का कन्फर्म टिकट आसानी से मिल जाता है।

सरकार कहती है, 2020 तक यात्री जब चाहे, तब उसे टिकट मिलेगा। 2020 तक 95 फीसदी ट्रेनें राइट टाइम पर चलाने का टारगेट है । सरकार के इस रेल बजट 2016’ को फाइव ईयर प्लान कहना गलत नहीं होगा । रेलमंत्री ने यात्री ट्रेन की औसत स्पीड 80 किमी प्रति घंटे करने का लक्ष्य तय किया पर कोई समय सीमा नही बताया। महिलाओं के लिए 24 घंटे हेल्पलाइन नंबर – 182 की बात कही गई, रेल केटरिंग को सुधारने की बात की गई।
सुरेश प्रभु ने अपने बजट भाषण के शुरुआत में यह साफ कहा कि रेल बजट में पीएम मोदी का विजन है। प्रभु ने पीएम का धन्यवाद करते हुए व्यक्तिगत रुप से उनके प्रति आभार प्रकट किया। रेल मंत्री का दावा है कि यात्री की गरिमा, रेल की गति और देश की प्रगति हमारा लक्ष्य है। यह बजट भारत के आम लोगो की हसरतों का आइना है। क्या वाकई ऐसा हैअगर हां ! तो हे ! प्रभु हमें जल्द ही इस आइना से रू-ब-रू कराए। ऐसे दौर में जब महंगाई का तीर और लगातार ऊपर जाने को उतारू हो, तब कम से कम यही काफी होगा कि अच्छे दिनआएं न आएं, बुरे तो नहीं ही आएंगे। जैसे दिन गुज़र रहे हैं, वैसे ही गुज़रते रहेंगे। आम आदमी के दिन आसानी से नहीं बदलते, आम आदमी की समस्या ट्वीट करने से भी हल नहीं होतीं, अदद तो वह बेचारा ट्वीट ही नहीं कर पाता, इसलिए उसके बारे में तो अलग से ही सोचना होगा। अब देखना यह है कि अच्छे दिन लाने वाली सरकार ऐसे लोगों के लिए आने वालें दिनों में क्या नया और अलग कर पाती है।

Wednesday, March 9, 2016

कहानी 8 मार्च की


8 मार्च यानी के महिलाओं का दिन। यह दिन उनके लिए एक खास दिन के रूप में, साथ ही महिला अधिकारों और उपलब्धियों को लेकर जाना जाता है। बात 1909 की है। विश्व के सबसे ताकतवर देश मानें जानें वाला अमेरिका में पहली बार यह दिवस 1909 में 28 फरवरी को मनाया गया था। कोपनहेगन में इसे 1910 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का सम्मान दिया गया, लेकिन बाद में जुलियन और ग्रेगेरियन कैलेंडर के तुलनात्मक अध्ययन के बाद पूरी दुनिया में इसे 8 मार्च को मनाया जाने लगा। अपने अधिकारों को लेकर महिलाओं के भीतर उठी ज्वाला को इतिहास की तरीखों में सजा दिया गया। यह वैश्विक पुरुष सत्ता पर महिलाओं को स्त्री अधिकारों की सबसे बड़ी जीत थी।

रूसी महिलाओं ने 1917 में मताधिकार के अधिकारों को लेकर बड़ा आंदोलन किया। इसका परिणाम रहा कि राष्ट्रपति जॉर्ज को सत्ता छोड़नी पड़ी। बाद में बनी सरकार ने महिलाओं को मताधिकार का अधिकार दिया। अधिकार की यह यात्रा सात साल में चलते- चलते रूस तक जा पहुंची, जब 1917 में रूस की महिलाओं ने महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी क्योंकि ज़ार ने सत्ता छोड़ी और उसके बाद बनी अंतरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिया।

उस समय रूस में जूलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर जबकि इन दोनों कैलेंडर्स की तारीखों में थोड़ा अन्तर होता है। जूलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 में फरवरी का आखि‍री इतवार 23 तारीख को पड़ा था, जबकि ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी। चूंकि पूरी दुनिया में अब, यहां तक रूस में भी ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है इसीलिए 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

तो ये थी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाए जाने की वो यात्रा, जब महिलाओं ने कामकाजी होने के साथ अपने अधिकारों के लिए आगे आने का साहस किया। जिसके लिए आज हमें उनका आभार व्यक्त करना चाहिए। आज दुनिया की आधी आबादी अपनी आवाज उठाने और उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धता बनाए हुए है।