Tuesday, April 7, 2015

शिक्षा की शान नालंदा

न्यू इंडिया मासिक पत्रिका के अप्रैल अंक में नालंदा पर छपा मेरा एक लेख
कर्नाटक के मैसूर निवासी 30 वर्षीय मैक्ने डेनियल बंगलुरू में 30,000 रुपए प्रति माह की नौकरी कर रहे थे, लेकिन उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बिहार की नालंदा विश्वविद्यालय के पहले सत्र 2014-16 में पारिस्थितिकी और पर्यावरण विषय के पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में दाखिला ले लिया. इसके लिए उन्हें सालाना 3,00,000 रुपए खर्चने पड़ेंगे. वह कहते हैं, ‘गौरवशाली अतीत वाले इस विश्वविद्यालय का हिस्सा बनना, किसी सपने के सच होने जैसा है.
  • भूटान निवासी नवांग तो भूटान विश्वविद्यालय में बाकायदा डीन के पद पर कार्यरत थे. उन्होंने दो साल की छुट्टी ली और बतौर स्टुडेंट नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अध्ययन के लिए दाखिला लिया है. एक अन्य स्टुडेंट जापान के अकिरोनारा मुरा कहते हैं, ‘नालंदा पवित्र भूमि है, जिससे उनकी आस्था जुड़ी है.
  • कोलकाता की सना सला हों या दिल्ली के अरुण गांधीदेश- विदेश के विभिन्न हिस्सों से आए स्टुडेंट यहां एडमिशन करा कर फख्र महसूस कर रहे हैं. वैसे यहां दाखिला लेना इतना आसान भी नहीं था. वाइसचांसलर डॉ. गोपा सभरवाल के मुताबिक, पीजी में दाखिले के लिए करीब 1,500 आवेदन आए थे. लेकिन विश्वविद्यालय के निर्धारित मानदंडों पर 15 लोग खरे उतरे हैं, जिनको दाखिला दिया गया है. 

यह वही नालंदा विश्वविद्यालय है, जो दुनिया भर में शिक्षा केंद्र के रूप में विख्यात रहा और जिसे 821 साल पहले बख्तियार खिलजी की आक्रमणकारी सेना ने तबाह कर दिया था. 1 सितंबर 2014 को यह दोबारा खुला और नए सत्र की शुरुआत दो कोर्स- पारिस्थितिक की और पर्यावरण तथा इतिहास अध्ययन के 15 स्टुडेंट्स और 11 फैकल्टी मेंबर्स के साथ हुई थी.


गौरवशाली इतिहास
बिहार की राजधानी पटना से कुछ 100 किलोमीटर की दूरी पर नालंदा जिले में बना नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है. 450 ईस्वी. में इसकी स्थापना हुई थी. नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त ने की थी. स्थापना के बाद इसे सभी शासक वंशों का समर्थन मिलता गया. महान शासक हर्षवर्धन ने भी इस विश्वविद्यालय के लिए खुले हाथ दान दिया. इस विश्वविद्यालय को विदेशी शासकों की भी सहायता मिली.
सम्राट अशोक तथा हर्षवर्धन ने यहां सबसे ज्यादा मोनेस्टी और मंदिरों का निर्माण करवाया. यहां की सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया है. आज भी आप इस विश्वविद्यालय की मुख्य दो मंजिला इमारत देख सकते हैं.
माना जाता है कि शायद यहीं शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे. यहां एक प्रेयर रूम आज भी सुरक्षित अवस्था में है. इसमें भगवान बुद्ध की स्टैचू रखी हुई है. मंदिर नंबर 3 से इस पूरे क्षेत्र का विशाल नजारा दिखाई देता है. यह बुद्ध का मंदिर है, जिसमें कई छोटे-बड़े स्तूप हैं, जिनमें भगवान बुद्ध के स्टैचू आपको देखने को मिलेंगे.
अध्ययन केन्द्र
ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध यहां कई बार आए थे, इसीलिए पांचवी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक इसे बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में भी जाना जाता था. सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग भी यहां रिर्सच करने आए थे. उनके तमाम लेखों में यहां की अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का बेहद रोचक वर्णन मिलता है.
 यह दुनिया का पहला आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय था. जहां दुनियाभर के तकरीबन 10,000 छात्र अध्ययन करते थे और इसी विश्वविद्यालय में रहते भी थे. यहां 2000 शिक्षक पढ़ाते थे. यहां आने वाले विद्यार्थियों में बौद्ध यात्रियों की संख्या ज्यादा थी.
संग्रहालय
विश्वविद्यालय परिसर की विपरीत दिशा में एक छोटा-सा पुरातत्वीय संग्रहालय बना हुआ है. यहां खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है. इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा-खासा संग्रह है. साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी का दो जार भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है.
  इसके अलावा तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदा अभिलेख, सिक्के, बर्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं. नव नालंदा महाविहार एक शिक्षण संस्थान है. इसमें पाली साहित्य तथा बुद्ध धर्म की पढ़ाई एवं अनुसंधान होता है. यह एक नया संस्थान है. इसमें दूसरे देश के छात्र भी अध्ययन करने आते हैं.
मेमोरियल हॉल
ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल एक नवनिर्मित भवन है. यह भवन चीन के महान तीर्थयात्री ह्वेनसांग की याद में बनवाया गया है. इसमें उनसे संबंधित चीजें तथा उनकी मूर्ति देखी जा सकती है. नालंदा विश्वविद्यालय के जलने के बाद उससे जुड़े अधिकांश दस्तावेज समाप्त हो गए थे. ह्वेनसांग ने यहां से पढ़ाई करते हुए तथा उसके बाद इसके बारे में जो कुछ लिखा, उससे हमें इस महान स्थान के बारे में काफी जानकारी मिल पाई.
800 साल बाद...
1 सितंबर, 2014 को प्राचीन और आधुनिक भारत के इतिहास के बीच ज्ञान की टूटी कड़ी एक बार फिर जुड़ गई. लगभग 800 साल बाद नालंदा विश्वविद्यालय (एनयू) फिर से शुरू हुआ. उम्मीद तो थी कि इस आयोजन पर अस्थायी परिसर से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्राचीन नालंदा महाविहार के खंडहर रूप बदल कर जी उठेंगे, लेकिन ऐसा कुछ ख़ास हुआ नहीं.
  विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर गोपा सभरवाल कहते हैं कि छात्रों की संख्या कम ज़रूर है, लेकिन क्योंकि इसे एक शोध संस्थान के रूप में विकसित किया जा रहा है, लिहाजा यहां अन्य संस्थानों की तरह भीड़ की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
  विश्वविद्यालय में फिलहाल, दो विषयों (स्कूल ऑफ़ हिस्टोरिकल स्टडीज और स्कूल ऑफ़ इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट) की पढ़ाई की अस्थाई व्यवस्था की गई है और सात शिक्षक नियुक्त किए गए हैं. 2014-15 के पहले सत्र के लिए जापान और भूटान के एक-एक छात्र और भारत के विभिन्न राज्यों के 13 छात्र-छात्राओं ने अपना नामांकन कराया है.
 विश्वविद्यालय में शिक्षण शुल्क तीन लाख रुपए सालाना है, लेकिन वर्तमान बैच को फीस में 50 प्रतिशत की छूट दी गई है. साथ ही विश्वविद्यालय की ओपन युनिवर्सिटी में फिलहाल हर विषय की पढ़ाई चल रही है.

No comments:

Post a Comment