जैसे जैसे घड़ी की सुई चलती गई,
मेरा बचपन मुझसे दूर होता गया...
माँ की ममता में पला बड़ा,
अब दोस्तों के बीच बैठा पड़ा...
कहाँ गया मेरा वो बचपन...
वो पापा के कंधे पर घूमना,
और आज उनके ही कंधे से कंधे मिला के चलना...
दादा की ऊँगली को अपना सहारा बनाना,
और आज उन्हें ही अपने ऊँगली का सहारा देना...
कहाँ गया वो मेरा बचपन....
ना थी किसी की चिंता,ना था किसी का डर ..
फिर क्यूँ है मुझे आज दुनिया से वैर...
वो सुबह सुबह अपनी हस्सी की खिल खिलाहट,
और आज की सुबह में कुछ अनहोनी की आहट...
कहाँ गया मेरा वो बचपन.....
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