Saturday, May 16, 2015

क्रोध...

क्रोध.. 

“क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है. मूढ़ता से स्मृति भ्रांत और स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है. बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं समाप्त हो जाता है. जैसे वर्षा ऋतु में धूल विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार क्रोध आने से अंत: करण के समस्त सदगुण शून्य हो जाते है”. -- श्री कृष्णजी, भगवत गीता 
क्रोध क्या है, हम सभी इसे महसूस करते हैं. क्रोध एक प्रकार की मनोवस्था है, लेकिन जब यह हमारे बस के बाहर हो जाता है तब यह विनाशकारी हो जाता है, और हिंसक आक्रोश में बदल जाता है. जब स्थितियां हमारे अनुकूल नहीं होतीं तब हम असंतोष , तनाव , अवसाद और हताशा जैसी भावनाओं का शिकार हो जाते हैं. यही हताशा क्रोध को जन्म देती है. क्रोध में मनुष्य विवेक शून्य हो जाता है और सही और गलत का अंतर भी भूल जाता है. हीन भावना या अपने आप को उच्च न समझने से भी क्रोध की स्थिति आती है. और इससे समस्याएं जन्म लेती हैं, चाहे वे समस्याएं कार्यक्षेत्र में हों या व्यक्तिगत सम्बंधों में, यह जीवन को हर तरह से प्रभावित करता है. हमारे अपने, हमारे क्रोध से डर कर अपनी बात हमारे सामने रख भी नहीं पाते. और धीरे धीरे वो आपसे दूर होते चले जाते हैं. और काम में भी उर्जा और सम्मान हमारे क्रोध के कारण हमारा साथ छोड़ने लग जाते हैं. हमारे सभी धर्म गुरुओं ने क्रोध को हमारा सबसे बड़ा शत्रु बताया है. 
तुलसीदास कहते हैं "क्रोध पित नित छाती जारा" अर्थात क्रोध ऐसा विष है जो ह्रदय को जलाता है. क्रोध से कभी कुछ अच्छा नहीं होता, क्रोध करने का परिणाम हमेशा बुरा ही होता है, क्रोध से आपकी जीत नहीं बल्कि आपकी हार ही होती है. 

महात्मा बुद्ध ने हमेशा से ही क्षमा और शान्ति के मार्ग पर चलने के लिए कहा है. उन्होनें क्रोध करना अनर्थ बताया है. उनके अनुसार जो मनुष्य क्रोध करता है, उसके शत्रु उससे खुश रहते हैं. आइये जानते हैं उन्होनें क्या कहा: · 
  • क्रोध खौलते हुए पानी की तरह है जिसमें इन्सान अपना चेहरा नहीं देख पता. क्रोध सदा अनुचित व्यवहार कराता है. इसका आरम्भ मूर्खता से और समापन पश्चाताप पर होता है. क्रोध के निवारण का सर्वोत्तम उपाय धैर्य और क्षमा है . धैर्य से क्रोध शांत और क्षमा से समूल नष्ट होता है.
  • मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु बदसूरत हो जाए क्योंकि कोई भी यह पसंद नहीं करता है कि उसका शत्रु सुंदर हो, दयामय हो . जब उसे क्रोध आता है, तो भले ही उसने मल-मलकर स्नान किया हो, इत्र लगाया हो, बाल और दाढ़ी ठीक ढंग से बनाई हो, उसके कपड़े साफ हों, फिर भी वह अच्छा नहीं लगता है क्योंकि उसकी आंखों में क्रोध भरा हुआ है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है.
  • मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु दर्द में हो. क्योंकि कोई आदमी यह पसंद नहीं करता कि उसका शत्रु आराम से रहे. जब उसे क्रोध आता है तो भले ही वह बढ़िया बिस्तर पर पड़ा हो, बढ़िया कंबल उसके पास हो, सिर और पैर के नीचे बढ़िया तकिए लगे हों, फिर भी वह दर्द का अनुभव करता है क्योंकि उसकी आंखों में क्रोध भरा हुआ है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है.
  • मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु संपन्न न रहे. क्योंकि अपने शत्रु की संपन्नता किसी को अच्छी नहीं लगती. मनुष्य जब क्रोध का शिकार होता है, तब वह बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा समझता है. इस तरह करते रहने से उसे हानि और कष्ट भोगना पड़ता है. उसकी संपन्नता जाती रहती है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है.
  • मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु धनवान न हो. क्योंकि कोई यह पसंद नहीं करता कि उसका शत्रु पैसेवाला हो. जब उसे क्रोध आता है तो भले ही उसने अपने श्रम से संपत्ति जुटाई हो, अपनी भुजाओं से, अपने श्रम के बल पर पसीने से, ईमानदारी से पैसा इकट्ठा किया हो, वह गलत काम करने लगता है,जिससे उसे जुर्माना आदि करना पड़ता है. उसकी संपत्ति नष्ट हो जाती है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है. 
  • मनुष्य चाहता है कि उसके शत्रु का मान-सम्मान न हो. क्योंकि कोई आदमी यह पसंद नहीं करता कि उसके शत्रु की मान-सम्मान हो. जब उसे क्रोध आता है तो पहले उसने भले ही अपने अच्छे कामों से सम्मान प्राप्त की हो, अब लोग कहने लगते हैं कि यह तो बड़ा क्रोधी है. उसकी सम्मान मिट जाती है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है.
  • मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु मित्रहीन रहे, उसका कोई मित्र न हो. क्योंकि कोई मनुष्य नहीं चाहता कि उसके शत्रु का कोई मित्र हो. जब उसे क्रोध आता है तो उसके मित्र, उसके साथी, उसके सगे-संबंधी उससे दूर रहने लगते हैं क्योंकि वह क्रोध का शिकार होता है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है.
  • मनुष्य चाहता है कि मरने पर उसके शत्रु को सुगति न मिले उल्टे नरक में बुरा स्थान मिले. क्योंकि कोई शत्रु नहीं चाहता कि उसके शत्रु को अच्छा स्थान मिले. जब मनुष्य को क्रोध आता है तो वह मन, वचन, कर्म से तरह-तरह के गलत काम करता है. इससे मरने पर वह नरक में जाता है. इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है.
बुद्ध कितने शांत स्वभाव के थे उसकी तो बहुत सी कहानियां हैं पर क्रोध को लेकर बुद्ध के बारे में एक कहानी प्रचलित है. एक गाँव के लोग बुद्ध को पसंद नहीं करते थे. और एक बार बुद्ध जब वहां से निकलकर जा रहे थे तो वहां के लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनके ऊपर गुस्सा करने लगे और अपशब्द बोलने लगे. उजब उनका चिल्लाना बंद हुआ तब बुद्ध ने कहा, "मेरे मित्रों तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव पहुंचना है". वे लोग थोड़े हैरान हुए. और उनमें से एक व्यक्ति ने बुद्ध से पूछा, "हमने क्या कोई मीठी बातें कहीं हैं, हमने तो गालियां दी हैं सीधी और स्पष्ट. और तुम ऐसे कर रहे हो जैसे कुछ हुआ ही न हो. और एकदम शांत हो. बुद्ध ने कहा, "तुमने थोड़ी देर कर दी. अगर तुम कुछ वर्ष पहले आए होते तो मैं भी तुम्हें गालियां देता. मैं भी क्रोधित होता. थोड़ा रस आता, बातचीत होती, मगर तुम लोग थोड़ी देर से आए हो". अब मैं उस जगह हूं कि तुम्हारी गाली लेने में असमर्थ हूं. तुमने गालियां दीं, वह तो ठीक लेकिन तुम्हारे देने से ही क्या होता है, मुझे भी तो उन्हें लेने के लिए बराबरी का भागीदार होना चाहिए. मैं उसे लूं तभी तो उसका परिणाम हो सकता है. लेकिन मैं तुम्हारी गाली लेता नहीं. मैं दूसरे गांव से निकला था वहां के लोग मिठाइयां लाए थे भेंट करने. मैंने उनसे कहा कि मेरा पेट भरा है तो वे मिठाइयां वापस ले गए. इसी तरह तुमने मुझे क्रोध दिया, मैंने लिया ही नहीं तो जब मैं लूंगा ही नहीं तो कोई मुझे कैसे दे पाएगा". क्रोध किसी भी तरह अच्छा नहीं होता, न देने के लिए और न लेने के लिए. आप का क्रोध आपके दुश्मन की संख्या को बढ़ाता चला जाता है. क्रोधी आदमी किसी बात का ठीक अर्थ नहीं समझता. वह अंधकार में रहता है. वह अपना होश खो बैठता है. वह मुंह से कुछ भी कह देता है. उसे किसी बात की शर्म नहीं रहती. वह किसी की भी हत्या कर बैठता है, फिर वह साधारण आदमी हो या साधु हो, माता-पिता हों या कोई और. वह आत्महत्या तक कर बैठता है. क्रोध से मनुष्य का सर्वनाश होता है. जो लोग क्रोध का त्याग कर देते हैं, काम, क्रोध, ईर्ष्या से अपने को मुक्त कर लेते हैं, वे निर्वाण पाते हैं. 
न्यू इंडिया पत्रिका के मई अंक मेें छपा मेरा  लेख...

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